Monday, February 22, 2010

बुद्ध की धरती रो रही है


नरकिटिया गांव की फुलमतिया की आंख अपनी फसल को देख जुड़ा जाती है। कई साल बाद रेहन रखे खेत में पांव रखने का मौका मिला। 12 कटठा जमीन के छोटे से टुकड़े में गेहू़ के कल्ले फूटे हुए हैं। खेत की मेड़ पर बैठकर वह उन्हें सहलाती है। दिन रात खटकर दस बरस से रेहन रखे इस खेत को छुड़ाया है। इसकी खुशी उसके चेहरे पर झलकती है पर यह खुशी बहुत देर तक नहीं बनी रहती। अगले साल शायद यह जमीन का टुकड़ा उसके पास न बचे। यह जमीन नाप ली गयी है। बुद्ध की धरती पर विकास की आंधी चल रही है। उसकी जमीन इसी आंधी की चपेट में है। इस हरी भरी तीन फसली जमीन पर हवाई अडडा बनेगा। आला हाकिम अपने फौज फांटे के साथ कल ही आये थे। दावत हुई थी। पूरे गांव के लोगों को समझाया गया। विकास के फायदे क्या हैं। कैसे हवाई अडडा बनेगा तो देश विदेश के बड़े पैसे वाले लोग आयेंगे। वे आयेंगे तो पैसा छींटेंगे। किसानी के दंश से मुक्ति मिलेगी। फुलमतिया को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि उसकी जमीन चली जायेगी। कई कई बार रेहन रखी गयी जमीन को महाजन के क्रूर हाथों से उसने अपने पसीने के बल पर छुड़ा लिया है। यह जमीन ही तो है जहां से उसे ताकत मिलती है। इसी के बल पर तो उसने अपने बीमार पति को बचाया। बेटे को मुम्बई भेजा। बिटिया का गवना किया। हाकिमों की बात पकड़कर फुलमतिया ने उन्हें निरूत्तर कर दिया था। साहेब इ बतावल जा, जमीनिया चलि जाई त हम सबे जीअब कैसे। हाकिम ने खाका खींचा, फुलमतिया हवाई अडडे के गेट पर चाय की दुकान भी रख लोगी तो सौ रुपया कमा लोगी। इस जमीन के छोटे से टुकड़े से क्या मिलेगा। फिर सरकार जमीन की कीमत भी तो दे रही है। फुलमतिया अपनी जमीन की बेहुरमती बर्दाश्त नहीं कर पाई। उसकी अपनी अस्मिता और ताकत को कोई महज जमीन के एक टुकड़े की तरह देखे। यह उसे गवांरा नही। भरी सभा में फुलमतिया ने एलान किया, जान दे देइब, जमीन नाही। सरकार हमरी लाश पर हवाई अडडा बनी। भल इहे बा कि चलि जा अपने थाने पवाने।
बुद्ध की धरती पर चौतरफा कोहराम जैसा है। इस रत्नगर्भा धरती के किसान जैसे लुटेरों से घिर गये हैं। कसया कस्बे से सटे 14 गांवों के 3300 किसानों के घरों में मातम है। फुलमतियां की तरह ही उनके भी खेत हवाई अडडे में छिन जायेंगे। 5 से लेकर 10 कटठा या फिर अधिकतम चार बीघा तक के किसान जमीन गंवाकर जियेंगे कैसे। हाकिम से लेकर नेता तक किसी के पास कोई जवाब नहीं है। इसके पहले मैत्रेय परियोजना के लिये बौद्ध बिहार से ठीक सटे सात गांवों की 800 एकड़ ली जा चुकी है। सिसवा महंत चौराहे पर इन किसानों के विरोध धरने का 1000 दिन 14 मार्च को पूरा होगा। यहां भी किसान अकेले हैं। सारी राजनीतिक पार्टिया पल्ला छुड़ाकर सरक गयी हैं। दलित, पिछड़े और वंचित किसानों के वोट पर लखनऊ और दिल्ली की सत्ता में पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि विकास का कोरस गा रहे हैं। कुशीनगर को 800 करोड़ मिलेगा। पर्यटक आयेंगे। रोजगार मिलेगा। दुनिया के नक्शे पर कुशीनगर होगा। यही कोरस मीडिया और बुद्धिजीवी भी गा रहे हैं। किसी के पास जवाब नहीं है कि खेत छिन जायेंगे तो फुलमतिया की बकरी कहां जायेगी। मिसवाहुददीन अंसारी की गइया कैसे जियेगी। विकास के बदरंग चश्मे से किसान जीवन के छोटे छोटे सरोकार नहीं दिखते। किसान सिर्फ जमीन का छोटा सा टुकड़ा नहीं गंवाता। उसका पूरा जीवन और हजारों बरस में बना समाज खत्म हो जाता है। सुख दुख, सहकार, प्रेम व जीवन के राग की कीमत मुआवजे के चंद रुपये नहीं हो सकते। बुद्ध की धरती रो रही है। है कोई इसके आंसू पोछने वाला।

यह पोस्ट वरिष्ठ पत्रकार अशोक चैधरी ने लिखी है। इसे जागरण जंक्शन से साभार लिया गया है

Sunday, February 21, 2010

मेरा गांव मेरा देश २ नदिया के जिया दीं हमरो जिनगी बढ़ जाई

यह एक नदी है जो करीब 102 किलोमीटर की यात्रा करते हुए तीन जनपदों से गुजरती है। सिद्धार्थनगर के सिकहरा ताल से गोरखपुर के सोहगौरा तक। सिकहरा ताल अचिरावती यानि राप्ती नदी की छाड़न है। यहीं से आमी नदी निकलती है और सोहगौरा के पास राप्ती में मिल जाती है। कहा जाता है कि आमी नदी का पुराना नाम अनोमा था। इसी नदी तट पर गौतम बुद्ध राजसी ठाठ त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े थे। सोहगौरा वह स्थान है जहां पर मिले ताम्रपत्र से पता चलता है कि यहां पर मौर्यकालीन राजकीय भंडारगृह था। आमी के तट पर सैकड़ों गांव है जहां हजारों लोग रहते है। इसके तट पर संत कबीर की निर्वाण स्थली मगहर है। जनश्रुति है कि कबीर ने आश्रम में रहने वाले लोगों को आसानी से पानी उपलब्ध कराने के लिए आमी नदी को आश्रम के पास बुला लिया था। इसीलिए आमी नदी उल्टा घूमकर मगहर के कबीर आश्रम के पास आई थी। आमी का पानी आम की तरह मीठा था। आज क्या हाल है इस नदी का ? इसी नदी पर गोरखपुर जिले के बांसगांव ब्लाक का कूड़ाभरत गांव है। ग्राम प्रधान सुधा त्रिपाठी के दरवाजे पर 100 से ज्यादा लोग इकट्ठे हैं। पूर्व प्रधान सच्चिदा तिवारी कहते हैं कि आमी नदी का पानी पहले लाल रंग का हुआ फिर इसमे कीड़े दिखने लगे और अब यह नाबदान की तरह हो गया है। शिवनारायन के लिए आमी मछलियों की खान थी लेकिन अब इसमें कोई जलचर नहीं है। संजय सिंह आमी नदी के पानी को बहुत अच्छे पाचक के रूप में जानते हैं लेकिन आज इस नदी का पानी शरीर पर पड़ जाए तो शरीर में फफोले पड़ जाते हैं। अंधे साधु पासी आमी नदी की मछलियों से अपनी आधी जिंदगी गुजार चुका है लेकिन अब उसके लिए रोटी लुग्गा दुलम हो गया है। पूर्व सैनिक और अब सरया तिवारी के प्रधान जितेन्द्र प्रसाद बेलदार को गांव के 500 मछुआ परिवारों के बेकार हो जाने का गम है। बेलडांड के प्रधान सुरेश सिंह नदी में मछली पकड़ने की नीलामी से ग्राम पंचायत को होने वाली 15 हजार रूपए की आय के समाप्त हो जाने से चिंतित हैं तो खूंटभार के गब्बू प्रसाद मद्देशिया कहते हैं कि नदी से अब दुर्गन्ध आती है कि आस-पास के लोगों का जीना मुहाल हो गया है। परमानन्द कहते हैं कि नदी इतनी विषैली हो गई है कि इसका पानी खेत में चला जाए तो वहां की फसल जल जाए। नदी के किनारे के खर-पतवार, शीशम, बबूल के पेड़ सब खत्म हो गए हैं। हरिनाथ, परभंस, बिकाउ लल्लन, छेदी पासी, मन्नू यादव, रामधारी की भैंस नदी का पानी पीकर मर गई। रामसांवर के 15 सुअर मर गए। प्रदेश और देश स्तर के आधा दर्जन तैराक देने वाले कूड़ाभरत गांव के लड़कों की आमी में तैराकी बंद है। इसी गांव के पास कटका गांव है। निषाद बाहुल्य इस गांव के मछुआरांे के जाल खूंटी में टांग दिए गए हैं और वे मजदूरी करने मुम्बई चले गए हैं। सुखमती कहती है कि नदी के पानी से ही हम सब खाना बनाते थे। आज नदी तो क्या हैण्डपम्प का पानी इस्तेमाल करने लायक नहीं रहा। गोल्हुई को दाल सब्जी नहीं खरीदना पड़ता था क्योंकि नदी से उन्हें रोज मछली मिल जाती थी। वह कहते हैं कि नदी इस कदर प्रदूषित हा गई है कि इसके तट पर लोग अंतिम संस्कार के लिए भी नहीं आते। अब वे गोला और बड़हलगंज जाते हैं हालांकि इसमें उनका पैसा भी खर्च हो जाता है।
एक नदी और हजारों लोगों का जीवन आधार। प्रदूषण नियत्रण बोर्ड कहता है कि आमी का पानी मानव और मवेशियों के पीने लायक नहीं रहा। सिंचाई तभी की जा सकती है कि जब परीक्षण किया जाए। बोर्ड के अनुसार आधा दर्जन उद्योगों का कचरा-गंदा पानी नदी में आता है लेकिर शुद्ध होने के बाद। उसकी रिपोर्ट के अनुसार सभी उद्योगों ने ट्रीटमेन्ट प्लान्ट लगा लिया है और सब ठीक है। फिर नदी की यह हालत कैसे है ? इस सवाल पर बोर्ड चुप हो जाता है। लोग संघर्ष करने के लिए संगठित हो रहे हैं। धरना-प्रदर्शन में सबसे ज्यादा महिलाए आती है। कटका गांव के नौजवनों से धरना-प्रदर्शन में आने की अपील की जाती है तो एक बुजुर्ग धीरे से बोलता है कि केहू रही तब न आई। सब त बाहर चल गईल। रोजी-रोटी के चक्कर में। चलते-चलते एक और बुजुर्ग बोल पड़ता है-नदिया की जिया दीं। हमरो जिनगी बढ़ जाई। क्या यह सिर्फ एक नदी की कहानी है ? नहीं सैकड़ों गांवों के हजारो लोगों की जिंदगानी की।

मेरा गांव मेरा देश १ - जसिया की आखें

वह असामान्य रूप से बड़ी-बड़ी आंखे फिर मेरे सामने थी। यह आंखे बार-बार पीछा करती हैं। यह आंखे आज अखबार के उस पन्ने से झांक रही है जिसमें भुखमरी से एक मुसहर की मौत की खबर छपी हैै। भुखमरी, गरीबी, लाचारी से हर मौत पर यही आंखे सामने आती हैं। तीन वर्ष पहले एक वरिष्ठ पत्रकार ने कुशीनगर जिले में भूख से मौतों के बारे में रिपोर्ट लिखने के लिए कुछ मुसहर गांवों में जाने की इच्छा जाहिर की थी और वह चाहते थे कि मै भी उनके साथ चलूं। वर्ष 2004 में भुखमरी से नगीना मुसहर की मौत के बाद मै लगातार कुशीनगर जिले के मुसहर गांवों का दौरा कर रहा था और उनके बारे में लिख रहा था। मुसहरों की गरीबी, बेबसी और उनकी बस्तियों में मौत के तांडव की कहानियां मीडिया की सुर्खी बनी हुई थी। हम लोग उन मुसहर गांवों में गए जहां हाल मंे भूख से मौत हुई थी। उनके परिजनों और गांव वालों से बातचीत की। बातचीत से पता चला कि मुसहरों के पास खेती की जमीन नहीं है, वे कर्ज में डूबे हैं, खेती में मशीनों के बढ़ते प्रयोग के कारण उन्हें अब कम काम मिलता है और खेत में मजदूरी करने पर महिलाओं को 20 रूपए और पुरूषों को 40 रूपए से अधिक नहीं मिलता। मुसहर नौजवान गांव छोड़ कर भाग रहे हैं। कुपोषण के कारण 40-45 वर्ष के लोग भी बूढ़े दिखते हैं। हर घर में कोई न कोई बीमार है। तपेदिक का भयानक प्रकोप है। कुपोषित बच्चों को देखने पर दिमाग में सोमालिया के बारे में पढी-देखी खबरें और तस्वीरें घूमने लगती है। बच्चे सुबह से उठ कर तालाबों के किनारें घोंघे ढूंढते है या गना, गेंठी चूुस कर अपनी भूख मिटाते हैं। धान की कटाई हुए खेतों में महिलाएं व पुरूष चूहे के बिल ढूंढते हैं और फिर उसे खोद कर चूहे द्वारा छिपाए गए धान को बाहर निकाल लेते हैें। यह अनाज उनके जीवन के लिए कुछ दिन का सहारा बनता है। मुसहर बस्तियां गांव के दक्खिन की तरफ हैं और जब चलते-चलते आापके पांव से खडंजा या कच्ची सड़क गायब हो जाए तो समझिए कि कोई मुसहर बस्ती आपके सामने आने वाली है। दुदही ब्लाक का ढाड़ीभार का मुसहर टोला ऐसा ही एक गांव था। जब हम यहां पहुंचे तो जब हम पहुंचे तो लोगों ने बताया कि जसिया के पति शंभू की मौत हुई है। हम उसकी घर की तरफ गए तो जसिया और उसकी बेटी रूना घर के बाहर बैठी मिलीं। बातचीत के क्रम में मैने पूछा कि घर में इसके पहले कोई और मौत हुई है। कुछ देर की चुप्पी के बाद उसके मुंह से निकला .....शिव की वह उसका बड़ा बेटा था तो तपेदिक से मर गया। ........कोई और मौत ...............जसिया नहीं बोल रही है। उसकी बड़ी-बड़ी आंखे हमकों घेर लेती है। गांव का एक लड़का बोल पड़ता है लल्लनों त मर गइल ! लल्लन कौन ? इनकर छोट लड़का रहनन। जसिया दिमाग पर जोर डाल रही थी। लल्लन इसंेफेलाइटिस से मर गइलं। ढेर दिन क बात हो गइल। एक साल में देा बेटे और पति की मौत। तीसरा बेटा मजदूरी करने के लिए कहीं चला गया। जसिया को नहीं पता कि कहां गया है। वह उत्तर दिशा की ओर जाना बताती है। बेटी रूना जिंदा है लेकिन ससुराल वालों ने उसे खदेड़ दिया है। कहते हैं कि उसके घर में इतनी मौत क्यों हो रही है ? वह अशुभ है। यहां रहेगी तो हम लोग भी मर जाएंगे। पैसा नहीें था इसलिए दोनों बेटों का क्रिया-करम नहीं हो सका था। शंभू का होगा क्योंकि अब इन बस्तियों में नेता आने लगे हैं।’ बाबा‘ कल आए थे और कुछ रूपए देते हुए कार्यकर्ताओं को निर्देश दे गए हैं कि ठीक से क्रिया-करम हो जाए। ठीक से क्रिया-करम होना धर्म के लिए जरूरी है। कुछ और लोग भी आते हैं। सवाल पूछते हैं और फिर फोटो खींच कर ले जाते हैं। उनके समाने सवालों से अटी जसिया की आंखे होती हैं जिससे टकराना मुश्किल होता है। हम भी लौट चले लेकिन वह आंखे आज भी हमारा पीछा कर रही हैं।